ज़िन्दगी से उलझी मै
चुप चाप सी बैठी यूं,
धडकनों की रफ्तार को
समझने की कोशिश में।
आसमान पर नज़रे बांधे
न जाने क्या तलाशने को,
उत्सुकता के असंख्य बाण
बदलो को चीड़ जाने को।
उत्सुख आंखों मै बने ख्वाब
अपना कल थे बना रहे,
पर फिर क्यूँ छलके आँसूं यूँ
ख्वाबो को बहा ले जाने को ।
अपेक्षाओं ने कही बांधे थे ये पर मेरे
जकडे थे कई अरमानो को कसके ,
उढ़ न पाने की थी विवशता मुझे
खुले आसमान से वंचित कर जाने को।
बरकत की रिमझिम बूंदों मे
था भीगने का अरमान बड़ा ,
गरजे जब, तब न बरसे कभी वो
तनहाइयों को साथ छोड़ जाने को।
धुंधलाती तस्वीर अपनों की अब
बिछड़ने का कर रही इशारा,
डगमगाने लगे हर जस्बात कही तब
अपनों को भुला दे जाने को।
आज मन एकांत हो
फिर किस सोच में उलझ पड़ा,
लड्की हूँ, तो बंधन हज़ार
दिल को यहीं समझाने को।
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3 comments:
Now i definately can't understand..
Good to see you back with ur poems..
Good poem...Keep going on..."SUDIPA POET"...
your poem is touched to heart
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